चूल्हे पर भी पानी फिर गया !
कवि:सोमवारी लाल सकलानी, निशांत।
पानी मंहगा,बिजली मंहगी,
गैस सिलेंडर खाली !
यह जन हित सरकारें कैसी !
ज्यों नोट हैं जाली !
न युद्ध- आपदा, नहीं चुनाव है,
क्यों ऐसी मंहगाई?
चूल्हे पर भी पानी फिर गया,
सिलेंडर हुआ हजारी।
कागज पर पहले आग लगायी,
बिजली करंट लगाया।
मुद्रा -स्फीति जन क्या जानें ?
बाजार मे मंदी छायी।
तेल चलाने - खाने वाला उछला,
प्रतिदिन ज्यों सुनामी
मंहगाई से अब कमर टूट रही है,
सुनता कौन व्यथा कहानी!
परमाणु बम से ही मरना अच्छा!
तड़फन से इस जीना।
प्रति निधियों पर फर्क नहीं पड़ता,
चलते चौड़ाकर सीना।
कविता गा- गा कर पेट नहीं भरता,
चाहिए पापी पेट को रोटी।
कलयुगी देवता़ओं पर असर न होवे,
कर रहे कमाई मोटी !
(कवि कुटीर)
सुमन कालोनी चंबा, टिहरी गढ़वाल।